Add To collaction

मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


विद्रोही मुंशी प्रेम चंद

चचा साहब ने धृष्टता से कहा, 'विमल बाबू, मुझे खेद है कि मैं इस विषय में और नहीं दब सकता।'
विमल बाबू जरा तेज होकर बोले, 'आप मेरा गला घोंट रहे हैं !'
चचा -'आपको मेरा एहसान मानना चाहिए कि कितनी रिआयत कर रहा हूँ।'
विमल-'क्यों न हो, आप मेरा गला घोंटें और मैं आपका एहसान मानूँ ? मैं इतना उदार नहीं हूँ। अगर मुझे मालूम होता कि आप इतने लोभी हैं, तो आपसे दूर ही रहता। मैं आपको सज्जन समझता था। अब मालूम हुआ कि आप भी कौड़ियों के गुलाम हैं। जिसकी निगाह में मुरौवत नहीं, जिसकी बातों का कोई विश्वास नहीं, उसे मैं शरीफ नहीं कह सकता। आपको अख्तियार है, कृष्णा बाबू की शादी जहाँ चाहें करें; लेकिन आपको हाथ न मलना पड़े, तो कहिएगा। तारा का विवाह तो कहीं-न-कहीं हो ही जायगा और ईश्वर ने चाहा तो किसी अच्छे ही घर में होगा। संसार में सज्जनों का अभाव नहीं है; मगर आपके हाथ अपयश के सिवा और कुछ न लगेगा।'
चचा साहब ने त्यौरियाँ चढ़ाकर कहा, 'अगर आप मेरे घर में न होते, तो इस अपमान का कुछ जवाब देता !'
विमल बाबू ने छड़ी उठा ली और कमरे से बाहर जाते हुए कहा, 'आप मुझे क्या जवाब देंगे ? आप जवाब देने के योग्य ही नहीं हैं।'
उसी दिन शाम को जब मैं बैरक से आया और जलपान करके विमल बाबू के घर जाने लगा, तो चची ने कहा, 'क़हाँ जाते हो ? विमल बाबू से और तुम्हारे चचाजी से आज एक झड़प हो गयी।'
मैंने ठिठककर ताज्जुब के साथ कहा, 'झड़प हो गयी ! किस बात पर ?'
चची ने सारा-का-सारा वृत्तान्त कह सुनाया और विमल को जितने काले रंगों में रंग सकीं, रंगा - 'तुमसे क्या कहूँ बेटा, ऐसा मुँहफट तो आदमी ही नहीं देखा। हजारों ही गालियाँ दीं, लड़ने पर आमादा हो गया। मैंने एक मिनट तक सन्नाटे में खड़े रहकर कहा, 'अच्छी बात है, वहाँ न जाऊँगा। बैरक जा रहा हूँ। चची बहुत रोयीं-चिल्लायीं; पर मैं एक क्षण-भर भी न ठहरा। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई मेरे ह्रदय में भाले भोंक रहा है। घर से बैरक तक पैदल जाने में शायद मुझे दस मिनट से ज्यादा न लगे होंगे। बार-बार जी झुँझलाता था; चचा साहब पर नहीं, विमल बाबू पर भी नहीं, केवल अपने ऊपर। क्यों मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि जाकर चचा साहब से कह दूं क़ोई मुझे लाख रुपये भी दे, तो शादी न करूँगा। मैं क्यों इतना इरपोक, इतना तेजहीन, इतना दब्बू हो गया ?
इसी क्रोध में मैंने पिताजी को एक पत्र लिखा और वह सारा वृत्तांत सुनाने के बाद अन्त में लिखा मैंने निश्चय कर लिया है कि और कहीं शादी न करूँगा, चाहे मुझे आपकी अवज्ञा ही क्यों न करनी पड़े। उस आवेश में न जाने क्या-क्या लिख गया, अब याद भी नहीं। इतना ही याद है कि दस-बारह पन्ने दस मिनट में लिख डाले थे। सम्भव होता तो मैं यही सारी बातें तार से भेजता।

   1
0 Comments